एटली की घोषणा के पश्चात् यह निश्चित हो गया, कि अब भारत को स्वतंत्रता मिलने ही वाली है।स्वतंत्रता मिलने की संभावना जब साकार होने जा रही थी तो लोगों पर सांप्रदायिकता का जुनून सवार हो गया, बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा और अकाली दल तीनों ने हिस्सा लिया। लाहौर में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन हुआ । लाहौर, तक्षशिला, रावलपिंडी, बिहार,अमृतसर, बंगाल आदि जगहों में भीषण नर-संहार हुआ। सेना और पुलिस ने भी अप्रत्यक्ष रूप से दंगाइयों की मदद की, गांधी एक जगह से दूसरी जगह सांप्रदायिक एकता कायम करने के लिए घूमते रहे, लेकिन जनता पागल हो उठी थी। इसी समय( 24 मार्च, 1947 )को नये वायसराय ने अपना पदभार ग्रहण किया। उन्होंने अनुमान लगा लिया था कि अब भारत का विभाजन निश्चित है।मुस्लिम लीग और कांग्रेस के मतभेदों को पाटना कठिन था।गांधीजी माउंटबेटन से मिले और उन्हें विभाजन करने से रोका।वे जिन्ना को सरकार बनाने के लिए भी राजी थे।लेकिन नेहरू और पटेल के दबाव में गांधीजी को भी विभाजन स्वीकार करना ही पड़ा।
माउंटबेटन योजना का इतिहास
सत्ता के सुचारू रूप से सुनिश्चित करने के लिए, लॉर्ड माउंटबेटन को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली द्वारा जिम्मेदारी दी गई थी जब वह अंतिम वायसराय के रूप में भारत आए थे। मई 1947 में, माउंटबेटन ने सुझाव दिया ,कि प्रांतों को स्वतंत्र उत्तराधिकारी राज्यों के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए और संविधान सभा में भाग लेने या न लेने का विकल्प दिया जाये। इस रणनीति को डिकी बर्ड प्लान के नाम से जाना जाता था। इस योजना के बारे में पता चलने पर जवाहरलाल नेहरू ने इसका कड़ा विरोध किया, और तर्क दिया कि इसके परिणामस्वरूप देश का विभाजन हो जाएगा। परिणामस्वरूप इस रणनीति को योजना बाल्कन के नाम से जाना जाने लगा। इसके बाद वायसराय 3 जून को योजना लेकर आए, जो एक और रणनीति थी। यह भारतीय स्वतंत्रता प्राप्त करने की अंतिम कार्ययोजना थी। इसके लिए एक वैकल्पिक शब्द माउंटबेटन योजना है । 3 जून की योजना में दोनों देशों के लिए विभाजन, स्वायत्तता, संप्रभुता और अपने स्वयं के संविधान बनाने की क्षमता की अवधारणाएं शामिल थीं। सबसे बढ़कर, जम्मू-कश्मीर जैसे रियासती देशों को पाकिस्तान या भारत में शामिल होने के बीच विकल्प की पेशकश की गई। इन विकल्पों का प्रभाव नए देशों पर लंबे समय तक रहेगा। इस रणनीति को कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने अनुमोदित किया था । उस समय तक कांग्रेस ने भी अपरिहार्य विभाजन स्वीकार कर लिया था। इस रणनीति को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 द्वारा लागू किया गया, जिसे ब्रिटिश संसद द्वारा अनुमोदित किया गया, और 18 जुलाई, 1947 को स्वीकृति मिली
माउंटबेटन योजना के प्रावधान
3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना प्रकाशित हुई, जिनमें निम्न प्रावधान थे।
1. भारत का विभाजन भारतीय और पाकिस्तान में कर दिया जाये।
2. इन राज्यों की सीमा निश्चित करने के पूर्व पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत प्रदेश और असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह कराया जाये और सिन्ध विधान सभा में वोट द्वारा यह निश्चित किया जाये कि वे किसके साथ रहना चाहते हैं ।
3. बंगाल और पंजाब में हिन्दू तथा मुसलमान बहुसंख्यक जिलों के प्रांतीय विधानसभा के सदस्यों की अलग-अलग बठैक बुलाई जाए. उसमें से अगर कोई भी पक्ष प्रातं का विभाजन चाहेगा तो विभाजन कर दिया जाएगा।
4. हिन्दुस्तान की संविधान सभा दो हिस्सो में बंट जायेगी, जो अपने-अपने लिए संविधान तैयार करेगी,दोनों राज्यों को डोमिनयन स्टेटस प्रदान किया जायेगा।
5. देशी रियासतों को यह स्वतंत्रता होगी कि वे जिसके साथ चाहें, मिल जायें या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनायें रखें।
लीग तथा कांग्रेस द्वारा इस योजना के स्वीकार किये जाने के बाद लॉर्ड माउन्टबेटन ने इसे तुरंत क्रियान्वित कर दिया. पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल ने पाकिस्तान में रहने का निर्णय किया. उत्तर पश्चिमी सीमा प्रातं, सिन्ध, बलूचिस्तान और असम के सिलहट जिल ने भी यही फैसला किया. इन निश्चयों के फलस्वरूप 15 अगस्त, 1947 को भारत तथा पाकिस्तान के स्वतंत्र राज्यों का प्रादुर्भाव हुआ।
माउंटबेटन योजना की विशेषता
मुस्लिम बहुल क्षेत्र भारतीय संविधान सभा के संविधान के अधीन नहीं होंगे। बंगाल और पंजाब का विभाजन, साथ ही संविधान सभा में कौन काम करेगा, इसका निर्णय उनके संबंधित विधायी सदनों द्वारा किया जाएगा। माउंटबेटन योजना यह भी निर्धारित करती है कि मुस्लिम बहुमत वाले प्रांत यह निर्धारित करेंगे कि एक अलग संविधान सभा स्थापित की जाए या नहीं। प्रत्येक प्रांत में एक सीमा साम्यवाद अंतिम परिसीमन रेखाओं का निर्धारण करेगा। आगामी संविधान सभा में शामिल होने या वर्तमान में बने रहने के प्रश्न पर सिंध विधान सभा निर्णय करेगी। लक्ष्य 15 अगस्त 1947 तक भारत को सत्ता प्रदान करना था।
देशी रियासतों का एकीकरण
भारतीय राज्यों के ऊपर ब्रिटिश सर्वोच्चता, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (1947) द्वारा 15 Aug 1947 को खत्म होनी थी। माउन्टबेटन योजना के तहत राज्यों को यह छूट दी गयी कि वे या तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हों अथवा अपनी स्वतंत्र सत्ता बनये रखें. सरदार वल्लभ भाई पटेल ने; जिन्होंने जुलाई 1947 में राज्यों के विभागों का उत्तरदायित्व ग्रहण किया, अत्यतं कुशलता के साथ इस समस्या का समाधान किया, इसलिए उन्हें भारत का ‘बिस्मार्क’ भी कहा जाता है। इस कार्य में उनकी सहायता वीपी. मेनन ने की. सभी 652 राज्यों के शासकों ने 15 अगस्त, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये. अपवाद थे जूनागढ़, कश्मीर और हैदाराबाद. जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में मिलने की घोषणा की, जबकि राज्य की जनता ने भारत में मिलने की इच्छा व्यक्ति की. अंततः भारतीय सेना ने राज्य पर अधिकार कर लिया. हैदराबाद के निजाम ने अपने को स्वतंत्र रखने का प्रयास किया, परन्तु इसके कई क्षेत्रों तेलांगाना आदि में विद्रोह के कारण बलपूर्वक इसका अधिग्रहण किया गया. कश्मीर के महाराजा ने भी भारत में मिलने में अत्यधिक विलम्ब किया. यहां तक कि सबसे शत्तिशाली राजनीतिक दल नेशनल कांफ्रेंस भारत में मिलना चाहता था।अंततः पठानों और पाकिस्तानी हमले के पश्चात् महाराजा ने इसका विलय भारत में कर दिया।
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